Thursday, December 26, 2013

इंदु सिंह की कवितायें - सर्द दोपहर में

इंदु सिंह--------------संवेदनशील कवयित्री इंदु सिंह की कवितायें सहज भाव से जीवन को प्रकृति से जोड़कर एक सकारात्मक रूप देती हैं, इंदु सिंह का पुनः स्वागत है फ़रगुदिया पर ... 








1--छोटी सी लहर



तालाब में उठी वो छोटी सी लहर
चली जाती है बहुत दूर तक
लेकिन बहुत शांत
समुद्र की तरह वह शोर नहीं मचाती
बरबस ही ध्यान खींच नहीं पाती
फिर भी जीवन से पहचान करा जाती है
वह छोटी सी लहर …
हर हाल में है शांत न कोई कौतूहल
हर बात को कितने आराम से समझाए
द्रढ़ निश्चयी है वह
लेकिन हर बात
जीवन की कोमलता से कह जाए
हो कितना भी विशाल समुद्र
समेटे लाखों झंझावात
लेकिन यह तालाब /समुद्र इस गाँव का
यह लहर है एक गिलहरी दौड़ती उस पर
यह छोटी सी लहर
पानी में एक लिखी हुई पंक्ति
यहाँ से वहाँ तक
दौड़ती हुई .


२- सर्द दोपहर में



सर्द दोपहर में
बालकनी का वह कोना
जहाँ सूरज अपना छोटा-सा घर बनाता है
अच्छा लगता है
हर पहर के साथ
खिसकता हुआ वह घर जीवन पथ पर
चलना सिखाता है
हो कितनी ही ठण्ड
पर उसकी गर्म सेंक
सुकून देती है।
है जीवन भी ऐसा कभी सर्द तो कभी गर्म
हर कोने की सर्दी को सेंक देना है
हर गर्म घर को शीतल कर देना है
वो सूरज की किरणों का
छोटा-सा घर
सब की बालकनी में एक कोना ।



3-ज़िंदगी
हाँ ! आज ही तो दिखी तुम
लोहे के जाली बंद
दरवाजे के उस पार
मुस्कुराती हुई उजली सी
वो श्वेत रंग था तुम्हारा
फिर भी हरा-भरा दिखा ।
कितनी मासूमियत से पूछा था
तुमने सवाल
क्यूँ हो मुझसे दूर
बंद सींखचों के साथ ?
बस, इतनी ही दूरी है
ख़त्म कर दो इसे ।
उठो ! आओ पास मेरे देखो
तुम पर भी ये रंग खूब फबेगा
और मैंने उठकर
खोल दिया दरवाजा
अब मुक्त था जीवन
खुश था ज़िंदगी के साथ ।
सही कहा था उसने
श्वेत रंग अपनी चमक से
हर रंग भर देगा
कर देती है ज़िंदगी हर रंग
को हरा-भरा वो भी अपने
श्वेत रंग के साथ….



4-गाँव हूँ मालूम है मुझे…

गाँव हूँ मालूम है मुझे फिर भी
चर्चा सब जगह मेरी
मै खो गया हूँ ये भी कहा किसी ने
बदल गया हूँ, ये भी।
मुझे, मेरी पहचान को धूमिल
किया जा रहा है
गाँव को विषय बना दिया है आज
मुझ पर चर्चा मेरी चिंता
सबसे बड़ा आज का मुद्दा।
न आना है किसी को मेरे पास
न जानने हैं मेरे जज़्बात
बस ! करनी चर्चा ख़ास।
मेरी तरक्की मेरी खामियाँ
मुझ पर सरकारी खर्चे
सब मुझ पर कुर्बान
कितना क्या चाहिए
या कितना है मिला
न किसी को इसकी कोई पहचान।
कविता लिखो मुझ पर
कहानी भी
उपन्यास से तो भरा हूँ मैं
लिखने को हर किसी को
बस यूँ ही मिला हूँ मैं
जैसे समाज में कुछ और
अब शेष ही न हो।
महानगर मुझ पर गर्व करते
अपनी चमकीली गोष्ठियों में
थोथली बातों से अनभिज्ञ नहीं मैं
अब बस भी करो
गाँव था अब भी वहीँ हूँ
बेवजह अपनी खामियाँ
भरने को
न मुझे उजागर करो
बदला मैं नहीं
बदल रहे हो तुम मुझे
जैसा हूँ रहने दो, हाँ !
इतनी ही फुर्सत है गर तुम्हे
लिखो कुछ खुद पर कभी
गर लिख सको तो …







5- चुप्पी



चुप्पी बयाँ भी होती है
और जज़्ब भी
चीखें गूंगी भी होती हैं
अद्रश्य भी
निर्भर करता है कि
चुप्पी कहाँ है और
चीखें किसकी .
ख़ामोश चीखों की असहनीय आवाज़
तार – तार करती है
समाज को
मूक बन निहारते हैं सब
कभी चुप्पी कभी
चीखों को
जारी है ये क्रम
सदियों से …


क्या लिखूँ ?
खुद पर
तुम पर
रिश्तों पर
प्यार पर
क्यों लिखूँ ?
जब झूठ ही लिखना है।
कभी धान
कभी खील
कभी लाई
और कभी उसके
चावल को ही
गला देना है जब।
कैसे लिखूँ उस
कनकी की पीर
अलग कर दिया उसे भी
छानकर, पटक कर।
उड़ती हुई भस
सब ढँक देती है
देखने को कुछ नहीं
कहने को कुछ नहीं
लिखने को कुछ नहीं।



परिचय 

नाम : इंदु सिंह 
जन्म : 4 अगस्त , उन्नाव  ( उत्तर प्रदेश )
शिक्षा : लखनऊ विश्व विद्यालय - एम .ए . ( हिंदी )
पत्राचार : 102 - S , सेक्टर - 8 , जसोला  विहार 
नई दिल्ली  - 110025
फ़ोन  : 09958000493

दो वर्ष हिंदी अध्यापन किया अब स्वतंत्र लेखन में जुटी हूँ।
जीवन के विभिन्न पहलुओं को समीप से देखना उन पर मनन करना स्वाभाव के अभिन्न अंग हैं।
भावनाओं का चित्रण कविताओं , कहानियों , एवं लेख के द्वारा प्रकट करना अपना कर्तव्य समझती हूँ।
विभिन्न कार्यक्रमों में मंच संयोजक एवं उदघोषक रही हूँ।

उपलब्धि :
लखनऊ दूरदर्शन द्वारा आयोजित कार्यक्रम ‘ नए हस्ताक्षर ‘ में काव्य पाठ.
फोकस टेलिविज़न द्वारा आयोजित कार्यक्रम ‘ होली के रंग ‘ में काव्य पाठ .
ऑल इण्डिया रेडियो के कार्यक्रम ‘ आधा आकाश हमारा ‘ में एकल काव्य पाठ .
अनेकानेक काव्य गोष्ठियों एवं मुशायरों में काव्य पाठ .
देश के अनेकानेक प्रतिष्ठित पत्र – पत्रिकाओं जैसे भारतीय भाषा परिषद की मासिक पत्रिका ‘ वागर्थ ‘ उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा प्रकाशित पत्रिका ‘साहित्य भारती ‘ तथा  ‘ अपरिहार्य ‘ सादर इण्डिया ‘ ‘ मगहर ’ ‘ विश्वगाथा ’ दैनिक समाचार पत्र – आज, स्वतंत्र भारत , नवभारत टाइम्स ,प्रभात वार्ता , पाक्षिक समाचार पत्र प्रेस पालिका आदि अनेकानेक पत्र – पत्रिकाओं में लेख, , कविताएँ एवं कहानियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं तथा निरंतर प्रकाशित हो रही हैं .
दो वर्षों से अपने ब्लॉग: http://hridyanubhuti.wordpress.com/ का संचालन कर रही हूँ .
अन्य रुचियाँ : घूमना , योग , सामाजिक कार्यक्रमों में भाग लेना है।





Friday, December 13, 2013

पिछला आँगन - विपिन चौधरी


विपिन चौधरी की कवितायें    

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१. पिछला आँगन
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घर के अगले आँगन में

खुशियों की गुलदावदी खिला करती हैं

तो पिछले आँगन में

स्त्रियों के सुख-दुःख की सांझी परछाईंयां उतरती हैं

तीन पीढ़ियों की स्त्रियां


इसी पिछले आँगन में

छोटी- बड़ी पीढ़ों पर बैठ सुस्ताया करती हैं

ननद, देवरानी के सिर के जुएं निकालती है

बहु, सास के गठियाग्रस्त पांवों पर गर्म तेल मलती है



दो-तीन आड़ी-तिरछी रस्सियों पर अलसाते हैं

ढेरों गीले कपडे

इसी पिछले आँगन में सूखती हैं

हल्दी की गांठे और गीली-सीली लाल मिर्चें

स्त्रियों के साथ ही सुस्ताया करते हैं

झाड़ू-पौंचे और टूटे कनस्तर



फोल्डिंग चारपाईयों पर धूप लगवाते

गर्म कपड़ों के साथ ही स्त्रियां

अपने मन को भी हवा लगवा लेती हैं

थोड़ी तरो-ताज़ा होकर

घर के आहते में प्रवेश करते हुए

शाम की चाय के लिए

ज़ोर से आवाज़ देते हुए पूछती हैं

" चाय कौन-कौन पियेगा"



२. स्त्री- आचार सहिंता
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सिलाई-बुनाई-बुहारी-कटका से मन का ध्यान बंटा रहता है

तो स्त्रियों तुम इन्हीं में ध्यान लगाओ



रसोई की मिली-जुली गंध में भूल जाओ

पिछली रात मिली लातों की दोहरी मार को

पेट की ऐंठन को

पेट में ही निपटा लो



तुम्हारे भीतर जितने भी कब्रगाह हैं

इस पर कायदे से मोटा पर्दा रखो






याद हैं ना तुम्हें वे दिन

जब तुम्हारे सामने बोलने पर पिता ने गुस्से में उबलते हुए कहा था

"गलती की तुझे पढ़ा-लिखा कर ढोर-डंगर चलवाने थे तुझसे'

और वह ताना जो पति रोज़ दिया करता है

" पहले ही दिन से तुझे अपनी जूती के नीचे रखना था"

और बेटा भी जो अक्सर कहता आया है

"माँ, पिता का कहा माना करो"





जिस्म में केंचुलियाँ के ढेर

दिन-रात ना बुझने वाली शमशानी आग

है तुम्हारे आजू -बाजू


फिर भी तुम इतनी शांत

ज़मीन को अंगूठे से कुरेदती हुयी

संकुचित



स्त्री आखिर तुम बला क्या हो?

खैर

तुम जो हो सो हो लेकिन समय रहते

ऊपर दर्ज इस स्त्री- आचार- संहिता को अच्छे से रट लो



3. आइडेंटिटी क्राइसिस
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यह सिर्फ स्त्रियों के साथ ही है

वर्ना यहाँ तो लिपस्टिकों और नेलपालिश के भी शेड्स और नंबर है


रागों के नाम है रंगों की अलग पहचान है

सड़कों के
चौराहों के
देश और देशों को अलग करने वाली
...विभाजन रेखाओं के भी नाम हैं



हम ही हैं
जिन्हें अपनी पहचान जताने के लिए
अपने नाम के आगे- पीछे एक पूँछ
लगानी पड़ती है


बीज अंकुरित होते ही
अपने साथ नयी पहचान ले आता है
काले बादल
साफ़-सुथरे आकाश पर दस्तक दे कर
उसकी पहचान स्थिर कर देता है





सिर्फ हमीं है 
जो वाकई पहचान के संकट से गुजर रही हैं
और संकट भी ऐसा कि
इस संकट के हल की चाबियाँ
हमारे ही बगलगीरों ने कहीं गुमा दी है




4. नयी बहू , मेहंदी भरे हाथ, सांप सीढ़ी और समय

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महेंदी लगे हाथों ने
नयी-नवेली-नकोर बहू

को इतनी आज़ादी तो दी हाथों की मेहंदी फीकी होने तक

वह घर से कामों में ना लगे

इस खाली समय में नयी बहू

अपने छोटे देवर और ननद के साथ
खेल रही है सांप-सीढ़ी का खेल


अपनी पतली-पतली ऊँगलियों से वह गिट्टी फेंकती है
बच्चे अपनी भाभी के दोनों हाथों में धुर ऊपर तक लगी हुई है मेहंदी

भरी कलाईयों पर मोहित हो उठे हैं



समय भी वहीं रुक कर इस खेल में खो गया है

कुछ समय तक डूब कर वह
चल देगा आगे तब इसी बहू के फटी बिवाईओं वाले पांवों, सूखे बालों और सख्त हो चुके हाथों की तरफ देखने की उसे मोहलत नहीं होगी



फिलवक़्त समय की निष्ठुरता को नज़रअंदाज़ कर नयी बहु

मगन है खेल में

और इस कविता ने भी बहू को जीतते देख हलकी सीटी बजाई है
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हरियाणा साहित्य अकादेमी द्वारा प्रेरणा पुरूस्कार से 2007 में सम्मानित युवा कवियत्री विपिन चौधरी हरियाणा के हिसार से है, आलोचक के साथ वो एक अच्छी रचनाकार भी है और कई रचनाओ का प्रकाशन हो चुका है “अँधेरे के मध्य से” (2008) और “एक बार फिर” (2008) उल्लेखनीय हैं। 

Wednesday, December 04, 2013

कहानी: पात्र - रमा भारती

    कहानी: पात्र -रमा भारती 


"
जिस तरह पहाड़ियों और घाटियों से झरती नदी धरातल को स्पर्श करते ही धीरे-धीरे विस्तार  लेने लगती है.. उसका चंचल, कल-कल करता स्वर धैर्य से  मौन धारण कर अविरल प्रवाहित होता रहता है उसी तरह लेखन भी कभी-कभी कविताओं से शुरू होकर कहानी का रूप लेने लगता  है ! लेखिका, कवयित्री रमा भारती की  'चिनाब' श्रंखला   और अन्य कविताएं हम फेसबुक पर पढ़तें आयें हैं .. आज उन्होंने अपनी पहली कहानी लिखी है !  हाल ही में प्रसिद्द गीतकार शैलेन्द्र जी की अप्रकाशित कविताओं का इन्होने संपादन व संकलन किया है जो राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुई है ! रमा को उनकी पहली कहानी के लिए हार्दिक बधाई !"
शोभा मिश्रा



   कवि के मन में कहानी जैसा कुछ लिखनें की तीव्र इच्छा जाग उठे तो यह तो तय है कि कविता से उसका गुज़ारा नहीं और कहीं न कहीं उसकी कविता मरणासन्न स्थिति में जा पहुँची है। वजह चाहे जो भी हो एक तर्क दूसरे को जन्म देता ही है और एक ख़ामोशी गहरे सन्नाटे को। यही सब सोच में थी तनु और रात का तीसरा पहर धुंधला होता जा रहा था। वर्क जैसे लम्हे उड़े जा रहे थे, एक गहरी उबासी ले गोद में रखी आधी पढ़ी हुई किताब को पलटते हुए शून्य में झांकते-झांकते बालकॉनी की ओर बढ़ती जा रही थी वो कि तभी ठिठुरती सर्द हवाओं नें तन्द्रा को भेद हड्डियों में बैठे दर्द को सहलाना शुरू कर दिया।

उल्टे पाँव रसोई की ओर लौटी और एक कप गर्म कॉफ़ी ले फ़िर से उसी ओर बढ़ी। इस बार पूरे जतन से दुशाला लपेटा हुआ था और प्याली पोरों से ऐसे पकड़ी हुयी थी कि जैसे ये जीवन का आख़िरी अलाव हो। अभी तक वो उस अधूरी पढ़ी किताब के किरदारों में पूरी तरह से डूबी हुयी थी। उसनें कॉफ़ी का कप ले जाकर भक्क सफ़ेद गुलदाऊदी के गमले से सटा कर रख दिया और रात की चुप्पी सुननें लगी। शहर ठहरा, तो झींगुर की आवाज़ तो दुर्लभ थी, हाँ ! कुछ आवारा कुत्ते सर्दी में ठिठुरते हुए रुदन कर रहे थे।

रात की चांदनी झरती जा रही थी और तनु किताब के किरदारों में गुम होती जा रही थी।
शीत  में डूबी वो गर्म कॉफ़ी और गर्म शाल कँपकँपाती देह और अविराम खाँसी को रोक पाने में समर्थ नहीं थे। किरदारों में खो जाना, कभी ख़ुद को पा लेना तनु के बचपन का रोग था इसलिए अक्सर डूबी-डूबी रहती थी वो। तभी एक ख्वाब सा ख्याल जो उस किताब का पात्र बन मन के आँगन में उतर आया था, दिमाग़ से कूदा और गुलदाऊदी के झुरमुट की ओट में जा खड़ा हुआ और धीरे से बोला 'रात बहुत हुयी अब सो जाओ तनु'....तनु मुस्कुराते हुए उससे उलझते हुए बोली 'अच्छा क्या रात गहरी बस इसी ओर होती है?' 

'अरे नहीं नहीं रात तो इस ओर भी बढ़ गयी है' कहते ही ख्याल घुप्प और एक दौर फ़िर खाँसते हुए शोर को दबाने की कोशिश में गया। दरअसल ये वो अहम पात्र था किताब का जिसका नाम 'ईश' था और जो कच्ची मिट्टी में पौध रोप मौसमों के हाल पे छोड़ आगे बढ़ जाने को प्रेम समझता था। तनु एक बार फिर से कहानी में डूबती जा रही थी और एक-एक पात्र दोबारा से खँगाल रही थी। तभी दिखा उसे वो पात्र जो छोटी-छोटी नज़मों का बाज़ार बिछा देता था शाम से एक मयखाने की तरह और ख़रीदारों की तो मत पूछो, औने-पौने भाव, आम-घास सब ख़रीद के चलते बनते। ये दोनों पात्र ईश और शम्भू अजीब क़िस्म के थे , एक दूसरे को सराहते और कोसते भी रहते हमेशा।

अक्सर जा बैठते थे उस एकांत झील के किनारे दोनों ही जहाँ गुप-चुप , सोयी-अलसायी झील में ढेला फ़ेंक-फ़ेंक कर तरंगों को गिना करते। और हाँ ! जो तेज़, दूर और ज्यादा तरंगों को पैदा करता वो उस शाम को अपनी जेब में कर चलता बनता। झील में न कोई परी थी, न कँवल , बस कहीं-कहीं काई और सिर्फ़ काई। इसी को इकठ्ठा करने जब सीमा नाम की छात्रा सुबह-सुबह पहुँचती तो रात के सभी जागे पलों को कोसा करती, कहती कि 'चैन से पानी को भी स्थिर नहीं रहने देते निशाचर लोग-बाग, रात तो कम-से-कम आराम को रख छोड़ें'।

कहानी अभी कुछ पन्नें ही खिसकी थी कि दोनों कन्धों पे 
शीत का जोर बढ़ गया और तनु का ध्यान भंग हुआ तो पौ फट चुकी थी। उसे ख़ुद से नाराज़गी हो रही थी कि फिर उसे आँख लगानें का वक़्त नहीं मिला। ये पात्र उसके जीवन में इतना हावी क्यों हो जाते हैं ? अभी तो किताब का एक हिस्सा भी ज़ेहन में उतरा नहीं , जब ख़त्म होगी कहानी और किरदार जी लेंगे अपना हिस्सा तब तक कितनी रातों को दिन कर के वो आगे बढ़ेगी भला.....

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रमा भारती 

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