Tuesday, June 24, 2014

गंगा दशहरा,गाँव की यादें - सोनरूपा विशाल

 गंगा दशहरा,गाँव की यादें - सोनरूपा विशाल  

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बुजुर्गों की दुआओं का जो हम पर शामियाना है
बहुत महफूज उसमें ज़िन्दगी का ताना - बाना है

ये बच्चे, ये मकाँ, ये मालो-दौलत सब हैं मुट्ठी में
मगर मिट्टी ही  आखिर में  तेरा - मेरा ठिकाना है

- सोनरूपा विशाल









 सोत नदी के नाम पर
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सोत नदी ठहरी है अब भी अपने उसी मुक़ाम पर लोगों ने गोदाम भर लिए सोत नदी के नाम पर
पुल बनवाने का वादा कर वोट ले गए जो इससे पटरी तक बनवा न सके वो कहे व्यथा अपनी किससे
कबसे ये ख़ामोश पड़ी है रखे भरोसा राम पर |
सपनीली आँखों सी इसकी पड़ी रहीं ख़ाली सीपें उनके मोती चुरा ले गयीं सारी सरकारी जीपें
इसके शंख मुफ़्त में लेकर बेचे महँगे दाम पर |
इसके पानी तक को सोखा  
थानों ने तहसीलों ने 
- डॉ उर्मिलेश




आज गंगा दशहरा है , हमारे शहर बदायूँ से २६ किलोमीटर दूर गंगा के किनारे बसे क़स्बे ‘कछला’ में आज के दिन छोटा सा मेला लगता है ,सुबह अख़बार में मेले में मिलने वाले सामान,विशेषकर लकड़ी के गढ़ोलने बेचते हुए दुकानदारों का फोटो चस्पा था,उसे देख कर मैंने बच्चों को दिखाया और बताया कि’तुम्हारी मम्मा ने इसको पकड़कर चलना सीखा था’ दोनों मुस्कुराये और बोले अच्छा!! फिर वन टू थ्री …..गॉन!

एक और ख़बर थी कि हमारे गाँव भतरी गोवर्धनपुर से होकर निकली सदानीरा नदी ’सोत नदी’ आज इतनी बदहाल और शुष्क हो चुकी है कि उस नदी को अब नाव से नहीं पैदल पार किया जा सकता है !ये ख़बरें कोई नई नहीं थीं लेकिन न जाने आज क्यों लगा जिस तरह सोत नदी का अस्तित्व मिट रहा है उसी तरह एक दिन इन से जुड़ी मेरी यादों का भी यही हश्र न हो !

थोड़ी फ़ुर्सत है आज ,इसीलिए शायद याद भी आ गया कि मेरे पास एक अद्रश्य अलमारी है जिसमें एक छोटा सा,प्यारा सा पर्स है और उसमें कई तरह की

रंगबिरंगी,खट्टी मीठी टॉफियाँ हैं ,जब मन करता है तब उसमें से कुछ टॉफियाँ का स्वाद लेती हूँ फिर दोबारा पर्स में रख देती हूँ , मेरी ये टॉफियाँ कभी ख़त्म नहीं होतीं ,ये टॉफियाँ जादुई हैं क्यों कि मेरे बचपन के कई सारे हिस्सों की उपमायें हैं जिनके रंग,ढंग,स्वाद सब अलग-अलग हैं !

बचपन का चैप्टर क्लोज हुए अर्सा हो गया है लेकिन ये सच्चाई है कि ज़िन्दगी का हर हिस्सा हमेशा खुशनुमा नहीं होता इसीलिए बैलेंस बनाये रखने के लिए ज़िन्दगी के हर हिस्से की अच्छी अच्छी बातों,यादों,अनुभवों को दिल के चार कोष्ठकों में कहीं न कहीं संजो कर रखना बहुत ज़रूरी होता है ! यही ज़रुरत आज मुझे बचपन के कुछ वाक़ये लिखने का इशारा कर रही है ,मेरी समझ से ऐसी ज़रूरतों की अवहेलना नहीं की जानी चाहिए !क्या मालूम आज यादें मजबूत हैं कल शायद कमज़ोर हो जाएँ ....अब क्यों कि बचपन के भी कई चैप्टर्स होते हैं तो क्या लिखा जाये,कहाँ से लिखा जाये ये भी बड़ी समस्या है,चूँकि समस्या की वजह से ही समाधान शब्द अस्तित्व में है ,इसीलिए इस समस्या का समाधान ये है कि मैं बस लिखना शुरू कर रही हूँ फिर ये यादों की नदी जहाँ चाहे वहाँ बहे,मैं रोकने वाली नहीं हूँ और वैसे भी यादें बड़ी ज़िद्दी होती हैं वो सुनती ही किसकी हैं?


मेरे बच्चों की गर्मियों की छुट्टियाँ शुरू हो गयी हैं ,रोज़ जान आफ़त में रहती है ‘मम्मा कहाँ चल रही हो छुट्टी में ? लेकिन इस बार की भीषण गर्मी देख कर बिलकुल मन नहीं कर रहा कि घर से बाहर जाया जाये |मेरे बच्चों की तरह मेरी भी ये समस्या थी कि मेरी नानी का घर भी एक ही शहर में था इसीलिए गर्मियों की छुट्टियों में नानी के घर जाने वाला ऑप्शन मेरे बच्चों के लिए और बचपन में मेरे लिए भी कुछ ख़ास क्रेज़ नहीं रखता था, पापा गाँव से थे लेकिन जबसे होश संभाला तब से हमने यही देखा की पापा कॉलेज और कवि सम्मेलनों की वजह से कभी-कभी ही गाँव जा पाते थे, दादी-बाबा ही अक्सर बदायूँ आ जाते थे, बाबा जी एक प्राइमरी स्कूल में हेड मास्टर थे ,गाँव में ज़मीन बटाई पर दे रखी थी इसीलिए खेती की कोई चिंता नहीं थी|गर्मियों में जब बाबा जी घर आते तो सबसे पहले एक जग भर कर बहुत तेज़ मीठा रूह अफज़ा पीते फिर थोड़ी देर सुस्ताने के बाद हम बच्चों को पास बिठा कर पूछते की बताओ विद्यालय में क्या नया सीखा ? मुझे परेशान करने के लिए पूछते की बताओ अमरुद को इंग्लिश में क्या कहते हैं मैं कहती ‘गुआवा’ तो कहते नहीं ‘बिलकुल ग़लत अमरुद को सपड़ी कहते हैं (यहाँ गाँव में अमरुद को सपड़ी कहा करते हैं) मैं चिढ़ जाती,मेरे ट्यूटर से कहते ‘मास्साब क्या पढ़ा रहे हो अमरुद को ये बच्ची ‘गुआवा’ कह रही है’ वो हँसने लगते थे ,मेरे टीचर की आदत थी जब मैं कोई ग़लती करती थी तो वो सीधे मेरे सिर पर मारते थे मुझे बहुत गुस्सा आता था , वो फिर न मारें इसके लिए जैसे ही वो मुझे मारने के लिए हाथ उठाते थे मैं इंकपैन का नोंक वाला हिस्सा ऊपर कर देती थी और वो नोंक उनके हाथ में चुभते ही वो तिलमिला के रह जाते कहते और मैं मन ही मन मंद-मंद मुस्कुराती थी अपनी विजय पर ,आज भी वो अक्सर टहलते हुए मिल जाते हैं मुझे ,वो शायद भूल गए हों लेकिन उन्हें देख कर मुझे मेरी ये शैतानी याद आ जाती है |

हमारे घर अक्सर गाँव से लोग आ जाया करते थे ,चूँकि पापा प्रोफ़ेसर होने के साथ-साथ देश के जाने माने कवि थे,सब उन्हें बहुत सम्मान देते थे गाँव के सबसे सयाने और लायक सपूत थे ,वो सिर्फ़ ‘पंडित भूप राम शर्मा’( मेरे बाबा जी )के पुत्र नहीं थे वो सबके लिए बेटे जैसे थे,ये अपनापन भी कितना अनमोल होता है न | गाँव के लोगों को जब भी कोई परेशानी होती तो सबसे पहले वो पापा को याद करते,हमारे घर में हर अतिथि सम्मानीय था |मेरी दादी को बड़ा सुकून मिलता था जब कोई उनके बेटे की बड़ाई करता गाँव वाले कहते थे कि’उर्मिलेश तो हमारी ढाल हैं हमें किसी बात की चिंता नहीं है हमें पता है हमारा उर्मिलेश हमें कोई परेशानी नहीं होने देगा”|वो ज़्यादा पढ़ी लिखी तो नहीं थीं लेकिन रामायण की चौपाइयाँ बहुत मन से पढ़तीं |

आये दिन तो उनके व्रत हुआ करते थे ,दान पुण्य करने में सबसे आगे रहतीं थीं ,ज़रा-ज़रा सी बात पर प्रसाद बोल देती थीं ‘कि भगवान ये मनो कामना पूरी हो तो मैं प्रसाद चढ़ाऊँगी’ |हमारे घर में लोगों का, रिश्तेदारों का आना जाना अक्सर लगा रहता था लेकिन मैंने अपनी मम्मी के चेहरे पर कभी शिकन नहीं देखी,बिलकुल मेरी नानी जी की तरह,मेरी नानी को मैंने शायद ही कभी टेंशन में देखा हो वो हर वक़्त मुस्कुराती रहती हैं,कभी-कभी सोचती हूँ कि पुराने समय में दान पुण्य ,सम्मान,मदद,विनम्रता ,सदभाव जैसे संस्कार सिखाये नहीं जाते थे लेकिन आज बच्चों को सिखाना पड़ता है |शायद हम भी इसमें कहीं ना कहीं ज़िम्मेदार हैं | तब ये जीवन जीने के सलीक़े में शामिल थे ,ये ख़ुद ब ख़ुद हमारे व्यक्तित्व में और व्यवहार में शामिल हो जाते थे |

मैं सरस्वती शिशु मंदिर की छात्रा थी ,हमारे एक रिश्तेदार जिनके बच्चे अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूल में पढ़ते थे ,एक बार उन्होंने मुझसे पुछा कि बेटा आप कौन से क्लास में पढ़ती हो ? मैंने कहा कि ‘मैं तृतीय कक्षा में पढ़ती हूँ’ मेरा जवाब सुनकर सब हँसने लगे | मुझे बहुत बुरा लगा घर जाकर मैंने पापा को बताया उन्होंने मुझे किस तरह समझाया ये तो मुझे याद नहीं लेकिन उस दिन के बाद से मुझे इतना याद है मुझे शुद्ध हिंदी बोलने में कभी शर्मिदगी नहीं हुई बल्कि गर्व हुआ|

हिंदी से एक बात याद आई जब कभी पापा हमें डांटते थे तब भी शुद्ध हिंदी के शब्द उपयोग करते थे जब कभी मैं तेज़ी से ज़ीने से उतरती थी तब पापा हमेशा टोकते थे कहते थे ‘तुममें सौन्दर्य बोध है या नहीं,इतनी तेज़ी से उतरती हो कि तुम्हारी चप्पलों की आवाज़ औरों को भी सुनाई देती है,क़ायदे से उतरा करो,या शाम को कभी हम अलसाये हुए से बिस्तर पर लेटे रहते तो कहते थे कि तुम बच्चों में बिलकुल ‘शारीरिक चैतन्यता’नहीं है दोनों बेला मिलने के वक़्त सोते रहते हो|

हमारा घर प्रोफेसर्स कॉलोनी में था ,चार-चार क्वाटर्स के चार ब्लॉक्स थे ,एक ही दीवार से चारों क्वाटर्स जुड़े हुए थे ,एक घर में अगर शोर होता तो उससे बाक़ी बचे तीनों क्वाटर्स गुंजायमान रहते थे ,मम्मी खाना बनाते हुए भी रेडियो साथ रखती थीं ,वो फ़िल्मी गानों की और क्रिकेट की बहुत शौक़ीन थीं और आज भी हैं , अगर कभी रेडियो के सिग्नल नहीं आते तो दूसरे घर से आती रेडियो की आवाज़ ध्यान से सुनतीं थीं ,दूसरे क्वाटर में एक बंगाली परिवार था वो अंकल भी क्रिकेट के शौक़ीन थे कमेंट्री के बीच में यकायक शोर सुनकर आवाज़ लगा कर पूछते ...मंजूल (मंजुल) विकीट गीर गया क्या ? मम्मी फटाफट जवाब देतीं ‘जी भाई साहब’|एक क्वाटर में शर्मा परिवार था ,वो अंकल संस्कृत के प्रोफ़ेसर थे और बहुत सख्त थे लेकिन उनका बेटा गोल्डी बहुत शैतान था , मेरा पक्का दुश्मन था वो |मुझे और मेरी मम्मी को बागबानी का बहुत शौक था |गुल्हड़,गुलाब,मोरपंखी,बेला,नीबू,क्रोटन के पेड़ ,पौधे हमने अपने छोटे से लॉन में लगा रक्खे थे ,हमारे घर से लगा हुआ घर गोल्डी का था ,वो मेरे लॉन से अक्सर फूल तोड़ा करता था और पूछने पर झूठ बोल देता था कि मैंने नहीं तोड़े| वो मुझे एक आँख नहीं भाता था ,पूरी दोपहरी मैं खिड़की पर पहरा देती रहती कि देखती हूँ बच्चू आज तुम कैसे फूल तोड़ते हो | पकड़े जाने पर उस पर जैसे मुक़दमा सा दायर कर देती,गवाहों को एकत्र करती, जैसे न जाने उसने कितना बड़ा गुनाह कर दिया हो |


कॉलोनी में मेरे हमउम्र कई बच्चे थे,शाम होते ही मैं अपने छोटे भाई को लेकर घर से निकल जाती थी,सब एक जगह एकत्र हो जाते थे और फिर खेल शुरू होता था, उन दिनों चार्ल्स शोभराज का नाम अख़बारों की सुर्ख़ियों में था ,बड़े लोगों के मुँह से हम बच्चे उसके कारनामे सुना करते थे ,उस को दिमाग में रख कर हम बच्चे भी ‘डॉन पुलिस’ के खेल में एक बच्चे को डॉन बना कर उसका नाम चार्ल्स शोभराज रख देते थे बाक़ी उसे पकड़ने वाले होते थे,किसी एक बच्चे के घर के बाहरी हिस्से को हम पुलिस हेड क्वाटर बनाते वहाँ दो लोग तैनात रहते ,एक प्लास्टिक का फ़ोन लेते ,कुछ कागज़ और पेन और बन जाता हमारा परफेक्ट पुलिस हेड क्वाटर! कभी इक्कल दुक्कल ,कभी घोड़ा है जमाल शाही,कभी वरफ पानी,कभी आई स्पाई | बहुत सारे खेल थे हमारे पास , एक बार जब गर्मियों की छुट्टियाँ शुरू हो गयीं तो मेरे सभी दोस्त कहीं न कहीं घूमने जाने लगे,ज़्यादातर सब नानी या दादी के घर छुट्टियाँ में जाते थे तब कहीं हिल स्टेशन वगैरह जाने का चलन नहीं था|

लेकिन क्यों कि हम नानी के यहाँ अक्सर जाते थे तो वहां जाना हमारे लिए कोई नई बात नहीं थी और दादी के यहाँ गाँव जाना भी मुझे भाता नहीं था लेकिन सब दोस्त वापस आकार पूछेंगे कि मीतू तुम कहाँ गईं? तो मैं क्या बताऊँगी, ये सोच कर मैंने मम्मी पापा से गाँव जाने के लिए पूछा,मम्मी पापा को पता था की मैं गाँव में रुक नहीं पाऊँगी ,उन्होंने मना कर दिया |लेकिन ज़िद करके मैं और मेरी छोटी बहन बाबा दादी जी के साथ गाँव चले आए ,शहर से १७ किलोमीटर दूर एक क़स्बा था ‘वजीरगंज’,वहाँ तक हम बस से आये फिर वहां से पाँच किलोमीटर दूर गाँव हम बैलगाड़ी से पहुँचे,बैलगाड़ी पर पहली बार बैठे थे वो इतनी उचक-उचक के चल रही थी कि न जाने कितनी बार तो मैं डर से चीखी लेकिन फिर मज़ा आने लगा |


गाँव में एक ख़ासियत होती है कि वहाँ किसी के भी घर मेहमान आयें वो पूरे गाँव का मेहमान होता है ,और हम भी गाँव में सबको मेहमान से कम नहीं लग रहे थे हमारा घर सबसे ऊँचाई पर था हमें देख कर औरतें आपस में फुसफुसा रही थीं ‘मास्टर साहब के यहाँ गौतारिया आये हैं’ ‘अरे उर्मिलेश की लड़किनी’आई हैं, ख़ुद को इतनी तवज्जो मिलती देख मुझमें ‘वी आई पी’ की आत्मा आने लग गयी थी ,क्या ऐटीट्यूड था मेरा! आज सोचती हूँ तो ख़ुद पर बहुत हँसी आती है कि कितनी पगली थी मैं |

पूरे दिन में गाँव के सब बच्चे हमें घेरे रहते हम शहरी भाषा बोलते तो वो हँसते और वो गाँव की भाषा बोलते तो हम हँसते |गाँव जाने से एक दो दिन पहले ही मैंने आमिर खान की पिक्चर’ पापा कहते हैं’ देखी थी उस का दीवाना पन उन दिनों मेरे सर चढ़ कर बोल रहा था ,पूरी दुपहरी मैं आमिर की तरह गिटार की जगह हाथ का पंखा लेकर खूब जोर जोर से उस पिक्चर के गाने गाती रहती बाक़ी सब बच्चे भी अपने-अपने राग अलापते | वहां बच्चे गेंहूँ के एवज़ में जब कुल्फ़ी ख़रीदते थे तो मुझे बड़ा आनंद आता था,दादी कहती थी कि तुम पैसे देकर ले लो लेकिन मैं गेंहूँ के एवज़ में ही कुल्फ़ी खरीदती ,मुझे ऐसा लगता कि जैसे मैं फ्री में कुल्फ़ी ले आई | रोज़ाना भरी दुपहरी फिरकी के पंखे बेचने वाला आता था मैं दादी से कहती ‘दादी पैसे दो,मुझे वो पंखा चाहिए जिसे लेकर भागो तो वो चलने लगता है ‘ ये सुन कर सब हँसते,हम दिन भर खूब खाते और मस्ती करते थे ,दादी के हाथ से बने और चूल्हे पर पके खाने का स्वाद आज भी नहीं भूलता|

जब सूरज जी की ड्यूटी ओवर हो जाती तो हम खेत की तरफ निकल जाते,कोई कहता ...आओ लली तुम्हे पालेज दिखावें, हम पूछते..पालेज ,ये क्या होती है ? तो कहते अरे तरबूजन के खेत को पालेज कहत हैं|और भी कई चीज़ों से अनजान हम दोनों बहनों से गाँव वाले कहते ‘उर्मिलेस की लड़किनी तो कतई सहरी हैं,जानती ही नाय हैं कछु,तुम्हारे पापा नै तुम्हें कछु न बताओ, ऐते बड़े सहर में तो नाय हो तुम ,जो बम्बई होत्तीं तो कतई न आतीं हियन ,लली जे देखौ तुम्हारे पापा जाई लड्हौरी में डुक जात्त ऐ जब तुम्हारे बाबा उनकौ पठेत्ते ! हम दोनों को खूब मज़ा आता ये सब बातें सुन कर |

तब सोत नदी आज की तरह सूखी नहीं थी,नदी में एक नाव हर वक़्त चलती रहती थी ..वो एक ओर से गाँव से आने जाने का एक मात्र ज़रिया थी ...उस समय कोई पुल नहीं था ,एक आद चक्कर हम भी लगा लेते नाव से ,वहीँ पास में आम के बाग थे गाँव के लड़के चटपट पेड़ पर चढ़ जाते हमें ताज़ी आम खिलाने के लिए ..इतना बढ़िया आव भगत शायद ही हमारी कहीं हुई होगी लेकिन जैसे जैसे शाम घिरने लगती मुझे मम्मी पापा की याद सताने लगती दिन तो अच्छा कट जाता था,लेकिन रात को जब गाँव में सात बजे से ही सुनसान होने लगता तो लगता की हम ये कहाँ आ गए ,मुझे अपनी कॉलोनी का शोर शराबा याद आने लगता ,पूरे गाँव में घुप्प अँधेरा हो जाता ,घर बस ढिबरी से ही रोशन रहते लेकिन जब ज़िद करके आ ही गए थे तो अब कैसे कहते की हमें वापस पहुँचा दो ,बाबा शाम को हमारी चारपाई बरामदे में डाल देते थे और नीचे पानी का छिडकाव कर देते थे जिससे कि वहां ठंडक बनी रहे,दादी हमारा मन लगाने को खूब सारी कहानी सुनातीं ,हमें गर्मी ना लगे इसीलिए बाबा दादी बारी-बारी से पूरी रात हाथ के पंखे से हमारी हवा करते रहते थे , लेकिन दो-तीन दिन में ही हमारे दावों की पोल राजनेताओं के दावों की तरह खुलने लगी थी बड़ी शान से मम्मी से कह कर आये थे कि देख लेना मम्मी हम कम से कम पंद्रह दिन गाँव में रह कर आयेंगे लेकिन यहाँ तो बस तीन चार दिन में ही मन भर गया था |मेरी छोटी बहन इतना परेशान नहीं करती थी जितना कि मैं |उसको कुछ ख़ास याद भी नहीं आ रही थी घर की ,वो तो जहाँ जाती वहीँ रम जाती,मैं ही थी मम्मी पापा की चिपकू बच्ची |मेरी बहन वापस जाने के लिए एक बार भी नहीं कहती और मुझे समझाती कि ‘अगर तुम रोओगी तो बाबा दादी को कितना बुरा लगेगा वो कितना ध्यान रख रहे हैं हमारा’ |लेकिन उल्टा मैंने ही उसे सिखाती कि ‘मेरे साथ तुम भी कहो कि बाबा जी हमें वापस घर जाना है तो बाबा जी हमें छोड़ आयेंगे’, दादी बाबा मेरा उतरा मुँह देख कर समझ ही गए थे कि इनका मन नहीं लग रहा अब |हमारे कहने पर बाबा हमें वापस घर छोड़ आये , फिर तो तभी गए जब मम्मी-पापा गाँव गए,तो ये थी हमारी एक मात्र गाँव की छोटी सी ग्रीष्मकालीन छुट्टी !

आज इस सब को दोहरा कर मेरा मन भी मीठी-मीठी टॉफी के स्वाद की तरह मीठा-मीठा हो गया है |

-आज का दिन बहुत अच्छा है जिसने मुझे कुछ देर लिए ही सही लेकिन मेरी ज़िन्दगी के सबसे प्यारे वक़्त यानि मेरे बचपन से मुझे बावस्ता करवाया है ,ऐ दिन ...शुक्रिया तुम्हारा !





सोनरूपा
गंगा दशहरा
८ जून २०१४  








-सोनरूपा विशाल, गंगा दशहरा ८ जून २०१४

जन्म – ३० अक्टूबर बदायूँ (उ.प्र.) में

पिता –राष्ट्रीय गीतकार डॉ.उर्मिलेश शिक्षा - एम.ए (हिंदी), पी .एच . डी एम .जे पी रूहेलखंड विश्वविद्यालय.बरेली
एम.ए पूर्वार्द्ध (संगीत) -दयालबाग विश्वविद्यालय,आगरा प्'संगीत प्रभाकर ' प्रयाग संगीत समिति इलाहाबाद सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन एवं गायन आई सी सी आर एवं इंडियन वर्ल्ड कत्चरल फोरम (नयी दिल्ली ) द्वारा ग़ज़ल गायन हेतु अधिकृत दिल्ली,बरेली दूरदर्शन से समय समय पर कवितायेँ प्रसारित आकाशवाणी द्वारा ग़जल गायन हेतु विगत १० वर्षों से अधिकृत लखनऊ एवं बरेली आकाशवाणी से गायन का प्रसारण अखिल भारतीय कविसम्मेलनों में काव्य पाठ हिंदी की ख्यातिलब्ध पत्र -पत्रिकाओं एवं ब्लॉगस में लेख व रचनाएँ प्रकाशित, कृति - 'आपका साथ' (डॉ.उर्मिलेश की ग़ज़लों का आडियो एल्बम सस्वरबद्द) ‘लिखना ज़रूरी है’प्रथम प्रकाशित ग़ज़ल संग्रह सम्मान -मॉरिशस में आधारशिला फाउंडेशन द्वारा आयोजित विश्व हिंदी सम्मलेन में 'कला श्री सम्मान' कला एवं संस्कृति मंत्रालय मॉरिशस मंत्रालय द्वारा विशिष्ट सम्मान आई सी सी आर एवं उदभव संस्था द्वारा 'उदभव विशिष्ट सम्मान’ 'बदायूँ गौरव सम्मान' तत्कालीन मुख्यमंत्री (उ.प्र.) द्वारा
'उत्तर प्रदेश लेखिका संघ' द्वारा सम्मानित
उपाध्यक्षा बदायूँ क्लब बदायूँ ,(महिला प्रकोष्ठ) डॉ.उर्मिलेश जन चेतना समिति की आजीवन सदस्य संपर्क - डॉ.सोनरूपा 'नमन 'अपो. राजमहल गार्डन प्रोफेसर्स कॉलोनी , 'बदायू'(उ .प्र) २४३६०१ ई मेल –sonroopa.vishal@gmail.com वेबसाइट-www.sonroopa.com likhnazaroorihai.blogspot.com

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