Monday, May 18, 2015

"खाली नारेबाजी जीवन नहीं है !" --अल्पना मिश्र जी से कल्पना पन्त की एक बातचीत


चर्चित उपन्यास "अन्हियारे तलछट में चमका " में घर-परिवार में घुटती स्त्रियों के संघर्षमय जीवन की व्यथा का सजीव,मार्मिक चित्रण है ! बिना किसी शोर-शराबे, नारेवाजी के सही मायने में अपने लिए स्वतंत्रता का मार्ग चुनने वाली स्त्रियों के प्रतिकार का लेखिका ने उपन्यास में बहुत ही खूबसूरती से वर्णन किया है ! सिर्फ स्त्री ही नहीं समाज की दिशाहीन युवा पीढ़ी और शिक्षा व्यवस्था की कमियों का भी उल्लेख किया है ! हाल ही में युवा आलोचक कल्पना पन्त ने उपन्यास के भिन्न पहलुओं पर अल्पना मिश्र जी से बातचीत की !
आज अल्पना मिश्र जी के जन्मदिन के शुभ अवसर पर प्रस्तुत है प्रेमचंद स्मृति कथा सम्मान से सम्मानित उनके उपन्यास "अन्हियारे तलछट में चमका" पर की गई सार्थक बातचीत ! जन्मदिन की हार्दिक बधाई और शुभकामनायें अल्पना जी !



एक अंतराल के बाद, एक बार फिर प्रतिष्ठित कथाकार अल्पना मिश्र से बात करने का अवसर मिला। इस बीच उनका उपन्यास ‘अन्हियारे तलछट में चमका’ प्रकाशित हो कर प्रसिद्धि की बुलन्दियाॅ छूने लगा है। इस पर उन्हें वर्ष 2014 का प्रेमचंद स्मृति कथा सम्मान भी घोषित हुआ है। इस उपन्यास को भाषा के अलग अनूठे अंदाज और नये शिल्पगत प्रयोग के साथ साथ बदलते समय के प्रभावों के बीच निम्न मध्यवर्गीय जीवन की बहुत गहरी अन्तरकथा के लिए सराहा जा रहा है। प्रस्तुत है उनके उपन्यास पर उनसे बातचीत. - कल्पना पंत




कल्पना पंत - अन्हियारे तलछट में चमका उपन्यास का शिल्प अपने में नवीनता लिए हुए है। उपन्यास को कई उपशीर्षकों में बांटने की जरुरत आपको क्यों महसूस हुई ?


अल्पना मिश्र - बस, मेरी कोशिश इतनी थी कि जो बात कहना चाहती हॅू, उसे खूब अच्छी तरह कह पाउं। टेकनीक नई थी तो शायद इसी से शिल्प भी बदलता चला गया। कहानी कहने के लिए आत्मकथा की टेकनीक को भी इसमें मिला दिया। तमाम प्रविधियाॅ घुलमिल कर एक नई प्रविधि की तरफ लेती गईं। यह भी अनायास ही हुआ। बस, कहने के तरीके की खोज में यह तरीका बनता गया। दूसरे उपशीर्षक भी इसी तरह बने।


कल्पना पंत - उपन्यास में बिट्टो, सुमन, ननकी, बिट्टो की माँ, और मौसी जैसी स्त्री पात्रों के चरित्र की सूक्ष्म पड़ताल दिखाई पड़ती है। वास्तव में क्या ये स्त्री पात्र आपके जीवनानुभवों का हिस्सा रहे हैं ?


अल्पना मिश्र - कोई रचना लेखक के अनुभव, विचार और कल्पना से मिल कर ही बनती है। कई बार देखी सुनी जानी बात भी बहुत गहराई से व्यंजित होती है। ये पात्र तो हमारी इसी दुनिया के पात्र हैं। मैंने बहुत निकट से गाॅवों, कस्बों और नए बनते शहरों को जाना है। इसलिए कह सकती हॅू कि इन पात्रों को मैंने बहुत निकट से समझा है। ननकी जैसे ही एक पात्र की मृत्यु मैंने अपने बचपन में देखा था, तब से अब तक न जाने कितनी ननकी की हत्याएं सुनी, जानी तो हर बार उस बचपन में देखे दृश्य की याद आई। वही प्रश्न बार बार उठे, जो बचपन में उठे थे। अब जा कर उसे थोड़ा सा लिख पाई हूॅ। इन हत्याओं का सही रहस्य कोई नहीं कहता। इसीलिए यह उपन्यास में भी बहुत धीरे से कहा गया है। मुझे इस बात का बहुत सुकून है कि ये पात्र पाठकों को परिचित लग रहे हैं।


कल्पना पंत - बिट्टो का पति शचीन्द्र अपनी यौन अक्षमता को स्वीकार नहीं करता है और अपने पुरुषार्थ को साबित करने के लिए लगातार बिट्टो को शारीरिक और मानसिक रूप से प्रताड़ित करता है। बिट्टो शचीन्द्र से अलग होने का निर्णय लेती तो है लेकिन काफी देर से। आज के आधुनिक समय में भी पढ़ी.लिखी और आत्मनिर्भर स्त्री द्वारा निर्णय लेने में आने वाली कठिनाइयों के पीछे आखिर कौन से मानदण्ड काम करते हैं ?


अल्पना मिश्र - बिट्टो का थोड़ी देर से निर्णय ले पाना यह बताता है कि खाली नारेबाजी जीवन नहीं है। नारेबाजी को तो स्त्री की ईमानदार अभिव्यक्तियों के खिलाफ जानबूझ कर स्थापित किया गया और उसे ही स्त्री लेखन का पैमाना बना दिया गया। जो देह विमर्श की पूरी राजनीति, पितृसत्तात्मक रणनीति के साथ की गई थी, उसने बहुत सी लेखिकाओं को भ्रमित किया। बहुत से लोग, जो गंभीर काम कर सकते थे, इसी की भेंट चढ़ गए। अपनी देह पर निर्णय का अधिकार एक बड़ा मुद्दा है, इसे इतना हल्का नहीं बनाया जा सकता। देह पर निणर्य का अधिकार आसानी से नहीं मिलता। बिना शिक्षा, बिना आर्थिक आत्मनिर्भरता के यह कितना संभव हो सकेगा! निर्णय की स्थिति तक आने में आत्मसंघर्ष से भी गुजरना होता है। प्रेम में जिम्मेदारी भी होती है और मनुष्य अपने प्रियजनों को इतनी जल्दी नहीं छोड़ना चाहता है। जल्दी हारना भी नहीं चाहता। सबसे पहले मनुष्य अपनी परिस्थिति को ठीक करना चाहता है। जब लगता है कि इसे ठीक नहीं किया जा सकता तभी दूसरे रास्ते की तरफ बढ़ता है। स्त्री भी इन्हीं स्थितियों से गुजरती है। मुख्य बात यह है कि इन स्थितियों से उसे कितनी देर जूझना चाहिए, तो जाहिर है कि अधिक देर नहीं करनी चाहिए। बिट्टो भी अधिक देर नहीं करती है। दूसरा रास्ता लेने की तरफ बढ़ती है। पढ़ी लिखी स्त्री का विवेक है यह। पिछली पीढि़यों की तरह पूरा जीवन इसकी भेंट नहीं चढ़ाया जा सकता है। बिट्टो की माॅ को देखिए, जीवन के आखिरी दौर में जा कर कहीं वह अपनी बेटी के साथ खड़े होने की हिम्मत जुटा पाती है। इसलिए मैंने इस विषय को गंभीरता से लिया है।


कल्पना पंत - वर्तमान समय में भी जीवनसाथी के चुनाव के सन्दर्भ में स्त्री की कोई निर्णायक भूमिका नहीं होती है। इन्ही प्रेम संबंध की दुखांत परिणति को ही दर्शाती है ननकी  की कहानी। अधिकांशतः विद्रोह न कर पाने वाली स्त्रियाँ ननकी की तरह ही आत्महत्या का मार्ग चुन लेती हैं। आखिर समाज की इस प्रेम.विरोधी मानसिकता को किस प्रकार बदला जा सकता है ?


अल्पना मिश्र - आज भी हालात बहुत नहीं बदले हैं। बहुत कम लड़कियाॅ अपने जीवन साथी के चुनाव का फैसला कर पाने की स्थिति में पॅहुची हैं। लेकिन लड़कियाॅ लगातार प्रतिरोध की तरफ बढ़ती हुई दिख रही हैं। पढ़ लिख कर आत्मनिर्भर होना और उसके साथ चेतना सम्पन्न भी होना होगा, तभी निर्णय लेने का पूरा अधिकार मिल सकेगा। ननकी की स्थिति अलग है। वह एक आम लड़की है। उसका चुनाव भले ही गलत साबित होता है पर उसने निर्णय तो लिया ही है और जब चेतना का पक्ष और मजबूत होता है तब वह फिर अपना अलग फैसला लेने की तरफ आती है। उसका फैसला हमारी सामाजिक पारिवारिक व्यवस्था को मंजूर नहीं हो सकता। वह आत्महत्या नहीं करती है बल्कि उसकी सुनियोजित हत्या का संकेत उपन्यास में आया है, जिसमें पितृसत्ता के मानसिक अनुकूलन का शिकार उसकी माॅ का मौन भी शामिल है। असल में प्रेम का स्वरूप ही व्यवस्था विरोधी है। व्यवस्था उसे अनुकूलित कर के ही अपने साथ आने देती है। प्रेम व्यवस्था में कहीं भी फिट नहीं बैठता। आप खुद ही देखिए हमारी व्यवस्था में प्रेम करने की आजादी स्त्री को कितनी है? प्रेम के जितने भी पूज्य रूप मिलते हैं, पुरूष सत्ता द्वारा अपनी कल्पना से बनाये गए हैं और जितने उदाहरण मिलते हैं, सब में दंड दिया गया है- सोहनी - महिवाल, लैला- मजनू आदि को याद करिए। अभी हाल फिलहाल दिल्ली के वेकटेश्वर काॅलेज में पढ़ने वाली लड़की के अन्तरजातीय विवाह करने पर घर वालों द्वारा की गई हत्या को देखिए। यह पढ़े लिखे समाज में भी हो रहा है। दिल्ली जैसे महानगरों में हो रहा है। स्त्री पर हिंसा लगातार बढ़ रही है। उस पर नियन्त्रण के तरीके बारीक और क्रूर हुए हैं। यह सब हमारे चारों तरफ चल रहा है। इस तरह की हत्याएं लगातार बढ़ रही हैं। यह दंड बताता है कि प्रेम व्यवस्था का प्रतिपक्ष है। इसे कहना तो पड़ेगा।


कल्पना पंत - सुमन और बिट्टो दोनों ही अंततः पितृसत्ता द्वारा स्त्री के लिए निर्धारित रूढ़ नैतिक मानदंडों को ठेंगा दिखाती हुई घर से निकल पड़ती हैं। इन दोनों द्वारा अपनी.अपनी कैद से मुक्त होने का निर्णय लेना क्या सम्पूर्ण स्त्री जाति के प्रति सकारात्मक ऊर्जा और संकेत का पर्याय है ? इस सन्दर्भ में आप क्या कहेंगी ?


अल्पना मिश्र - निश्चित ही सुमन और बिट्टो दोनों अपनी अलग राह बनाने निकल पड़ी हैं। इनकी तरह तमाम लड़कियाॅ आज अपनी अपनी राह खोज रही हैं। दोनों ने ही पितृसत्ता के नैतिक मानदंडों को नकार दिया है। तुम देखोगी कि दोनों ही प्रेम करती हैं और प्रेम के नाम पर सामंती रूपों की जकड़बंदी को दोनों ही ठुकरा देती हैं। प्रेम दरअसल व्यवस्था का बड़ा प्रतिरोध भी है। हमारी पूरी व्यवस्था में प्रेम के लिए कोई जगह ही नहीं है। वह प्रतिपक्ष है। ये दोनों पात्र प्रेम की तरफ जाते हैं, इसका मतलब ही है कि प्रतिरोध की तरफ जाते हैं।


कल्पना पंत - वर्तमान शिक्षा व्यवस्था के पतनोन्मुख स्वरुप को भी उपन्यास में बखूबी उजागर किया गया है। आखिर शिक्षा व्यवस्था में आई इस गिरावट का मूल कारण आप क्या मानती हैं ?


अल्पना मिश्र - हाॅ, यह दिखाना जरूरी लगा। अगर सही शिक्षा नहीं मिलती है तो चेतना का विकास विस्तार संभव नहीं बन पाता है। आम आदमी के लिए जैसी शिक्षा उपलब्ध है, उसकी व्यवस्था कैसी है? कई तरह की शिक्षा हमारे देश में है। गरीबों के लिए अलग है, अमीरों के लिए अलग है, सरकारी अलग, प्राइवेट कांवेंट अलग। हर राज्य का अपना अलग अलग पाठ्यक्रम है। तो इन सब में देखने की बात है कि आम लोगों के हिस्से क्या आ रहा है? नकल है, भ्रष्टाचार है, पैसा ले कर काॅपी लिखी जा रही है, ऐसी शिक्षा प्राप्त लोगों से आप किस तरह की चेतना, किस तरह के व्यवहार की उम्मीद करेंगे? इसमें बुद्धिमान और प्रतिभासम्पन्न युवक क्या मुन्ना जी और कान्हा तिवारी वाला रास्ता पकड़ लेने की तरफ नहीं चले जाते? क्या यह त्रासद नहीं है? नए बनते समय में भी शिक्षा की ऐसी दशा, बेरोजगारी, दिशाहीनता...... फिर अपराध के रास्ते.... मैं यही सब दिखाना चाहती थी।


कल्पना पंत - नवजागरण के दौर से ही स्त्री शिक्षा की पुरजोर वकालत की जाती रही है किन्तु व्यवहारिक स्तर आज भी पढ़ी.लिखी स्त्रियाँ घर के भीतर चूल्हे.चौके तक ही सीमित रह जाती हैं। यदि आत्मनिर्भर होती भी हैं तो उनकी कमाई पर पहला हक़ उनके परिवार या पुरुष का होता है। जैसे बिट्टो की माँ। शिक्षित होने के बावजूद परनिर्भरता और आर्थिक परतंत्रता की बेड़ियों में लिपटी ये स्त्रियाँ ;बिट्टो की माँ अपनी बेटियों को पढ़ाना नहीं चाहती है। इसके पीछे पितृसत्ता किस रूप में काम करती है ?

अल्पना मिश्र - नवजागरण का समय स्त्री समस्याओं पर केन्द्रित था। क्योंकि यह स्त्री ही थी जो भव्य भारतीय संस्कृति के धवल माथे पर काले धब्बे की तरह थी, इसी जगह, ब्रिटिश सभ्यता के आगे करारी शिकस्त थी। इसीलिए अपनी अनपढ़, गंवार, असभ्य, स्त्रियों और इनके साथ जुड़ी भयानक क्रूरताओं पर बात करना जरूरी हो गया। सतीप्रथा, विधवा जीवन, बाल विवाह आदि के कारण अंग्रेजों के सामने सिर उठाना मुश्किल हो गया था। आप किस भारतीय संस्कृति पर गर्व की बात करेंगे, जहाॅ स्त्रियों के लिए ऐसी यंत्रणादायक नारकीय जीवन की व्यवस्था थी! इसलिए इन अनपढ़ स्त्रियों को शिक्षित करना जरूरी हुआ। लेकिन पितृसत्ता अपने नियन्त्रण को जरा भी ठीला करने को तैयार न थी। समस्या यहीं थी, इसलिए स्त्री शिक्षा को ले कर बड़ी भारी चिंताएं भी थीं। शुरू में पाठ्यक्रम भी ऐसा बनाया गया था, जिसमें होम साइंस अनिवार्य था। नैतिक शिक्षा, आदर्श स्त्री धर्म आदि अनिवार्य थे। धीरे धीरे सेवा क्षेत्र उनके लिए खोले गए। तकनीकी क्षेत्र, ज्ञान विज्ञान के अन्य क्षेत्र तो बहुत बाद में स्त्रियों के लिए खुले। लेकिन शिक्षा ऐसा हथियार है जिसे पकड़ाने के बाद आप उनके दिमाग को कब तक अनुकूलित किए रह सकते हैं, नतीजा प्रश्न उठने शुरू हुए। जीवन और समाज की समालोचना शुरू हुई। महादेवी वर्मा ने बहुत पहले ही इसे पहचाना था। जहाॅ तक बिट्टो की माॅ जैसी स्त्रियों का प्रश्न है तो वे पितृसत्तात्मक जकड़बंदी में अपने सारे प्रयासों को व्यर्थ पाती हैं और अपने सारे विरोध को भी। यह व्यर्थता बोध ही उन्हें इस तरह सोचने की तरफ ले जाता है। लेकिन आशा की एक चिंगारी भी उन्हें सोये से जगा सा देती है। और यही मुख्य बात है। बिट्टो पर माॅ का बढ़ा हुआ भरोसा न केवल बिट्टो के लिए बल्कि माॅ के लिए भी नया पथ बनाता है। मुक्तिकामी पथ की दिशा । अपने लिए सही जीवन की तलाश आखिर दोनों की ही है। संगठित हो कर कहीं अधिक मजबूत हो सकते हैं।

कल्पना पंत - उपन्यास में एक मुकम्मल शब्द ष्विकल्पष् प्रयुक्त हुआ है। सुमन सोचती है कि ष्नरक में चुपचाप सड़ते चले जाना कौन सी बहादुरी है घ् ष्विकल्पष् अच्छा शब्द हैए ढूँढना होगा हमें भी !ष् इस सन्दर्भ में आप क्या कहेंगी ?

अल्पना मिश्र - ‘विकल्प’ बड़ा शब्द है और जरूरी भी। सुमन, बिट्टो, ननकी जैसी तमाम लड़कियों को अपने जीवन के लिए विकल्प की तलाश है। यहाॅ तक कि बिट्टो की माॅ और मौसी जैसी स्त्रियों को भी विकल्प की तलाश है। नरक में चुपचाप सड़ते चले जाने की बजाय विकल्प की पहचान करनी चाहिए, अपना रास्ता तभी ढ़ूढ सकेंगे और तभी उस नए रास्ते पर चलने की कोशिश की जा सकेगी। कभी कभी जिसे व्यक्ति अपने लिए सही चुनाव मान कर चलता है, कुछ ही दूरी पर वह गलत चुनाव साबित हो जाता है, जैसा कि ननकी के साथ हुआ या जैसा कि बिट्टो के साथ हुआ। तब मैं कहूंगी कि फिर से विकल्प खोजो, जीवन कभी नहीं रूकता। कभी उसे खत्म नहीं मानना चाहिए। इसीलिए बिट्टो भी फिर से नई राह चुनने की दिशा लेती है और सुमन, जिसने कि प्रेम विवाह किया था, वह भी फिर से जीवन के लिए नए रास्ते की तलाश में निकलती है। स्त्रियों ने तो कदम बढ़ाएं हैं पर अच्छा होता कि पुरूष उनके इतने ही हमसफर बनते। कुछ पुरूषों ने अपने पितृसत्तात्मक अनुकूलन को पहचान कर उनसेे मुक्त होने की कोशिश की है, उनके ऐसे प्रयास और अधिक हों, ऐसी कामना है।

कल्पना पंत - प्रेमचंद स्मृति कथा सम्मान के लिए आपको बहुत.बहुत बधाई। पिछली बार पूछा था तब आप इस उपन्यास को पूरा कर रही थीं, आजकल आप क्या लिख रही हैं ?

अल्पना मिश्र - धन्यवाद कल्पना। जिसतरह पाठकों ने ‘अन्हियारे तलछट में चमका’ का स्वागत किया है, उससे मेरा उत्साह बढ़ा है। अब मैं अधिक व्यवस्थित तौर पर एक नए उपन्यास पर काम कर रही हॅू। इसकी टेकनीक पहले से अलग होगी। जैसे इस पहले उपन्यास में, मैंने नई टेकनीक का प्रयोग किया, वैसे ही कुछ एकदम अलग। बिलकुल नई होगी। मीरा पर जो लिख रही थी, वह भी पूरा होने की तरफ है। एक ब्लाॅग शुरू कर रही हूॅ और फील्ड वर्क को भी अधिक बढ़ाना है।

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सम्पर्क-
अल्पना मिश्र
एसोसिएट प्रोफेसरहिंदी विभागदिल्ली विश्वविद्यालयदिल्ली-7
मो.- 09911378341
ई मेल- alpana.mishra@yahoo.co.in  


कल्पना पन्त
हैदराबाद विश्वविद्यालय, हैदराबाद
आन्ध्र प्रदेश

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